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दूसरा अध्याय ___ आगे-पाक्षिक श्रावकको सम्यग्दर्शनको विशुद्ध रखनके लिये तथा लोगोंका चित्त संतुष्ट करनेके लिये क्या क्या करना चाहिये सो कहते हैं
स्थूललक्षः क्रियास्तीर्थयात्राद्या दृग्विशुद्धये । कुर्यात्तथेष्टभोज्याद्याः प्रीत्या लोकानुवृत्तये ॥८४॥
अर्थ-जिसके व्यवहार ही प्रधान है और जो दान | देनेमें उदार है ऐसे गृहस्थको स्थूललक्ष कहते हैं । ऐसे पाक्षिक श्रावकको सम्यग्दर्शन निर्मल करनेकेलिये तीर्थयात्रा अर्थात् सम्मेदाचल गिरनार आदि जहां कि पहिले तीर्थंकर आदि पुण्यपुरुषोंने निवास किया था उनकी यात्रा करना, रथयात्रा करना, मुनियोंकी यात्रा कराना (यात्राके लिये संघ निकालना) और यदि शहरके पास कोई नशियां (शहरके पास बाहर जो मंदिर होता है उसे नशियां कहते हैं) हो तो वहांकी
को नाम विशति मोहं नयभंगविशारदानुपास्य गुरून् । विदित जिनमतरहस्यः श्रयन्नाहिंसां विशुद्धमतिः ॥
अर्थ-नयभंगोंके जाननेमें प्रवीण ऐसे गुरुओंकी उपासना कर जिनमतके रहस्योंको जाननेवाला और निर्मलबुद्धिको धारण करनेवाला ऐसा कौन है जो अहिंसाधर्मको जानकर स्वीकार करता हुआ भी पूर्वोक्त मतोंमें मूढताको प्राप्त हो ? अर्थात् कोई बुद्धिमान् ऐसे हिंसक मतोंमें प्रवर्त नहीं होता।