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दूसरा अध्याय पडेंगे इसलिये उनका यह कहना थोडेसे दुःखसे छुडाकर अधिक दुःखमें डालदेनेके समान है । जिस अशुभ कर्मके उदयसे उसे दुःख हुआ है उसके मारनेसे वह कर्म नष्ट नहीं हो जाता, इसलिये उसको तो फिर भी दुःख होगा ही परंतु मारनेवाला उसे मारकर व्यर्थ ही पापका भार लेता है, इसलिये कितने ही दुःखोंसे दुःखी क्यों न हों उनका घात नहीं करना चाहिये । अन्य कितने ही महाशयोंका ऐसा मत है कि "जो जीव सुखी हैं उन्हें मार देना अच्छा है, क्योंकि संसारमें सुख दुर्लभ है, जो जीव सुखावस्थामें मार दिये जायंगे वे सुखी ही होंगे, इसलिये सुखी जीवोंको सदा सुखी बनानेके लिये मार देना अच्छा है" परंतु उनका यह कहना भी भूलसे भरा हुआ है। क्योंकि सुखी जीवके मारनेसे उसके चित्तको अत्यंत क्लेश होता है, मरनेमें वह दुःखी होता है, इसलिये उसके सुखका नाश हुआ,
१-कृच्छ्रेण सुखावाप्ति भवंति सुखिनो हताः सुखिन एव । इति तर्कमंडलानः सुखिनां घाताय नादेयः ॥ अर्थ-"सुखकी प्राप्ति बडी कठिनतासे होती है इसलिये मारे हुये सुखी जीव सुखी ही होंगे" सुखी जीवोंका घात करनेके लिये इसप्रकार कुतर्ककी तलवार कभी हाथमें नहीं लेनी चाहिये।
उपलब्धिसुगतिसाधनसमाधिसारस्य भूयसोऽभ्यासात् । स्वगुरोः शिष्येण शिरो न कर्तनीयं सुधर्ममभिलषिता ॥ अर्थ-सत्यधर्मकी आभलाषा करनेवाले शिष्यको अधिक अभ्यास करनेसे मोक्षका कारण ऐसा समाधिका सार अर्थात् ध्यान प्राप्त करनेवाले अपने गुरुका मस्तक | नहीं काट डालना चाहिये।