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सागारधर्मामृत
[१७१ इसके सिवाय उसकी इसप्रकार मृत्यु होनेसे उसके आर्तध्यान और रौद्रध्यान होता है जिससे मरकर वह दुर्गतिको जाता है और वहां उसे अनेक प्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं, इसलिये सुखी जीवको मारना उसके वर्तमान सुखका नाश करना और उसे दुर्गतिमें डालना है । इसलिये सुखी जीवका घात भी कभी नहीं करना चाहिये । इनके सिवाय और भी बहुतसे ऐसे मत हैं जो ऐसी ऐसी हिंसामें धर्म मानते हैं परंतु उन सबका समाधान अन्य शास्त्रों में लिखा है इसलिये इस प्रकरणको यहांपर नहीं बढाते हैं । इस सबका अभिप्राय यह है कि हिंसा चाहे स्वगत (अपनी) हो अथवा परगत (दूसरे जीवकी हिंसा) उससे धर्मोपार्जन कभी नहीं हो सकता उसके करनेसे केवल पापका बोझा ही लादना पडता है ऐसा जानकर धर्मकी इच्छा करनेवालोंको अपनी शक्तिके अनुसार हिंसाके त्याग करनेका सदा प्रयत्न करते रहना चाहिये । यही आप्तसूक्तोपनिषत् अर्थात अरहंतदेवका कहा हुआ उत्तम युक्तियों से भरा हुआ सुंदर वाक्य है ॥८॥
धर्मों ही देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिह सर्व । इति दुर्विवेककलितां धिषणां न प्राप्य देहिनो हिंस्याः ॥ अर्थ-धर्म देवतासे उत्पन्न होता है इसलिये इसलोकमें उनके लिये सब कुछ दे देना योग्य है ऐसे आविवेकसे भरी हुई बुद्धिको पाकर देहधारी जीवोंको नहीं मारना चाहिये।