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दूसरा अध्याय
कर धर्मात्मा पुरुषोंको धर्म के लिये अपनी शक्तिके अनुसार अपराधी जीवोंकी सदा रक्षा करनी चाहिये । तथा जो निरपराधी जीव हैं उनकी विशेष रक्षा करनी चाहिये ॥ ८१ ॥
आगे — संकल्पी हिंसा के त्यागका उपदेश देते हुये प्रकारांतर से उसे समर्थन करते हैं
आरंभेऽपि सदा हिंसां सुधीः सांकल्पिकीं त्यजेत् । नतोऽपि कर्षकादुचैः पापोऽनन्नपि धीवरः ।। ८२ ॥
अर्थ - - जो शास्त्रानुसार हिंसा के फलको अच्छीतरह जानता है उसे सुधी कहते हैं ऐसे सुधी अर्थात् विद्वान पुरुषको जिनपूजा पात्रदान और कुटुंबपोषण आदिके लिये खेती व्यापार आदि आजीविकाके कायको करते हुये भी उन कार्यों में संकल्पी हिंसा अर्थात् मैं अमुक प्रयोजन के लिये इस जीवको मारूंगा ऐसी संकल्पपूर्वक हिंसाका त्याग सदा के लिये अवश्य कर देना चाहिये । क्योंकि आरंमी हिंसाका त्याग उससे हो नहीं सकता, इतना अवश्य है कि खेती व्यापार आदि आरंभ भी उसे यत्नपूर्वक करने चाहिये । इसका अभिप्राय यह है कि संकल्पी हिंसा में बहुत पाप होता है आरंभी हिंसा में उतना पाप नहीं होता । इसीको दृष्टांत द्वारा दिखलाते हैं । जो किसान विना संकल्पके देव ब्राह्मण और कुटुंबपोषण के लिये खेती करने में बहुतसी हिंसा