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दूसरा अध्याय
करना चाहिये । यहां कदाचित् कोई ऐसी शंका करे कि नित्यानुष्ठान में यह सब है ही फिर यहां इसे विशेष क्यों कहा है तो इसके उत्तर में ग्रंथकार कहते हैं कि नित्य अनुष्ठानकी अपेक्षा नैमित्तक अनुष्ठान करनेमें गृहस्थों का चित्त अत्यंत उत्साहको प्राप्त होता है अर्थात् नैमित्तक अनुष्ठानों में गृह - स्थोंका चित्त अधिक लगता है ॥ ७८ ॥
आगे -- व्रतोंका ग्रहण करना, रक्षा करना और दैवयोग से भंग होनेपर प्रायश्चित लेकर फिर स्थापन करना इन सबकी विधि कहते हैं—
समीक्ष्यत्रतमादेयमात्तं पाल्यं प्रयत्नतः ।
छिन्नं दर्पात्प्रमादाद्वा प्रत्यवस्थाप्यमंजसा ।। ७९ ।। अर्थ - अपना कल्याण करनेवाले पुरुषोंको अपनी शक्ति, देश, काल, अवस्था और सहायक आदिकोंका अच्छीतरह विचारकर व्रत ग्रहण करना चाहिये । तथा जो व्रत ग्रहणं कर लिये हैं उन्हें बडे प्रयत्न से पालन करना चाहिये, और कदाचित् किसी मदके आवेशसे अथवा असावघानीसे व्रतका भंग हो जाय अथवा भारी अतिचार लग जाय तो उसी समय प्रायश्चित्त लेकर फिरसे धारण करना चाहिये वा निर्मल करना चाहिये । भावार्थ - अपनी सबतरह की शक्ति देखकर व्रत लेना 1 चाहिये, लिये हुये व्रतोंकी रक्षा करनी चाहिये और कदाचित् किसीतरह व्रतका भंग हो गया तो प्रायश्चित्त से शुद्धकर पालन करना चाहिये ॥ ७९ ॥