________________
१५४ 1
दूसरा अध्याय आगे-अन्न आदि दानोंके फलोंके दृष्टांत दिखलाते हैं
भोगित्वाद्यंतशांतिप्रभुपदमुदयं संयतेऽन्नप्रदानात् श्रीषेणो रुग्निषेधाद्धनपतितनया प्राप सर्वोषधार्द्ध । प्राक तज्जन्मर्पिवासावनशुभकरणाच्छूकरः स्वर्गमय्यं कौंडेशः पुस्तकार्चा वितरणविधिनाप्यागमांभोधिपारं ॥७॥
अर्थ--राजा श्रीषेणने आदित्यगति और अरिंजय नामके चारणमुनियोंको विधिपूर्वक आहारदान दिया था उसी आहारदानके प्रभावसे वह प्रथम तो उत्तम भोगभूमिमें उत्तम आर्य हुआ और फिर कईवार स्वर्गोंके सुख भोगकर अंतमें उसने सोलहवें शांतिनाथतीर्थकरका पद पाया। यहांपर केवल बीज मात्र दिखलाया है अर्थात् वह केवल आहारदान देनेसे ही तीर्थंकर नहीं होगया था किंतु आहारदान देनेसे उसने ऐसे पुण्य और पदकी प्राप्ति की थी कि उस पुण्यके प्रभावसे उस पदमें फिर तीर्थकर प्रकृतिका बंध किया था। यदि वह आहारदान न देता तो उसे वह पुण्य और वह पद नहीं मिलता कि जिस पदमें जिस पुण्योदयसे वह तीर्थकरका बंध कर सका था। इसलिये उसके तीर्थंकरपदमें भी परंपरासे आहारदान ही कारण है। रस आदि गुण चलित होगये हों, जो जला हुआ हो तथा और भी जो निंद्य भोजन हो वह मुनिको कभी नहीं देना चाहिये ।