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दूसरा अध्याय त्रियों हैं उनका आदर सत्कार भी करना चाहिये । क्योंकि रत्नत्रय आदि गुणों के समूहको धारण करनेवाले मुनि आर्जिका श्रावक श्राविका इन चार प्रकारके संघको विधिपूर्वक भोजन वसतिका भादि दिया हुआ दान अनेक प्रकारके इष्ट फलोंको देता है । ' चतुर्विघेऽपि ' इसमें जो अपि शब्द है उससे यह सूचित होता है कि केवल चार प्रकारके संघको दिया दुआ दान ही इष्ट फोंसे नहीं फलता है किंतु अरहंतदेवकी प्रतिमाअरहंतदेवका चैत्यालय और अरहंतदेवका कहाहुआ शास्त्र इनके लिये विधिपूर्वक दिया हुआ अपना थोडा धन भी बहुत होकर फलित होता है । अभिप्राय यह है कि जैसे चारप्रकारके संघको दिया हुआ दान बडी विभूतिके साथ फलता है उसीप्रकार चैत्य चैत्यालय और शास्त्र इनको दिया हुआ दान भी बडी विभूतिके साथ फलता है । इसपरसे यह भी समझ लेना
चाहिये कि गृहस्थको अपना धन खर्च करनेके लिये ये ऊपर लिखे हुये सात स्थान है। इन्हीं सातों स्थानों में गृहस्थों को अपना धन खर्च करना चाहिये । इनमें धन खर्च करनेसे बड़ा भारी पुण्य होता है।
धर्मपात्रोंका उपकार करना गृहस्थ के लिये एक आवश्यक कार्य है अर्थात् गृहस्थको अवश्य करना चाहिये यह बात कह चुके ॥७३॥ ___अब आगे--गृहस्थको कार्यपात्रोंके उपकार करनेका विधान बतलाते हैं