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दूसरा अध्याय के लिये पुत्र पौत्र आदि संतान उत्पन्न करनेका जैसा प्रयल करते हैं उसीप्रकार समस्त संसारका उपकार करनेवाले जिनधर्मको निरंतर चलाने के लिये नवीन नवीन मुनि बनानेका प्रयत्न करना चाहिये अर्थात् अच्छे अच्छे उदासीन सज्जन विद्वानोंको देखकर इसतरह प्रार्थना करना चाहिये कि जिससे वे जिनदीक्षा धारण करें। तथा उसी जिनधर्मको निरंतर चलानेके लिये जो मुनि विद्यमान हैं उन्हें श्रुतज्ञान आदि गुणोंसे उत्कृष्ट बनानेका प्रयत्न करना चाहिये, अर्थात् उनके पठनपाठनकी सामग्री मिलाना चाहिये और योग्य आहार औषध शास्त्र और वसतिका इनका दान देकर उनके ज्ञान तथा तपमें सहायता पहुंचाना चाहिये ॥ ७१ ॥
___ आगे---कदाचित् कोई यह कहे कि “ इस पंचमकालमें लोग प्रायः दुष्कर्म करनेवाले होते हैं। यदि किसीको मुनिदीक्षा भी दी जायगी तथापि उत्कृष्ट गुण नहीं आसकते । इसलिये मुनि बनानेका प्रयत्न करना व्यर्थ है" इसप्रकार कहनेवाले गृहस्थोंके चित्तकी तरंगोंको रोकनेके लिये कहते हैं
श्रेयो यत्नवतोऽस्त्येव कलिदोषाद्गणद्युतौ । असिद्धावपि तत्सिद्धौ स्वपरानुग्रहो महान् ॥ ७२ ॥ __ अर्थ--इस पंचमकालके दोषसे अथवा पापकर्मों के दोपसे प्रयत्न करनेपर भी जो ज्ञान तप आदि गुणोंको प्रगट कर