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दूसरा अध्याय देनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव मरने के पीछे जघन्य भोगभूमिमें जन्म लेता है वहांपर एक पल्यकी आयु धारणकर कल्पवृक्ष
आदिसे उत्पन्न हुये विषयोपभोगोंके सुख भोगता है और आयु पूर्ण होनेपर अपने बचे हुये पुण्यके अनुसार स्वर्गमें देव होता है । सम्यग्दर्शन और अणुव्रतोंसे पवित्र श्रावक मध्यमपात्र गिना जाता है, उसे दान देनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव मरकर मध्यम भोगभूपिमें जन्म लेता है, वहां दो पल्यकी आयु होती है, निरंतर दो पल्यतक वहांके कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुये सुख भोगकर आयु पूर्ण होनेपर अपने बचे हुये पुण्यके अनुसार स्वर्गमें देव उत्पन्न होता है । इसीतरह सम्यग्दर्शन और महाव्रतोंसे विभूषित मुनि उत्तमपात्र गिने जाते हैं । उन्हें दान देनेवाला मिथ्यादृष्टि मरकर उत्सम भोगभूमिमें जन्म लेता है, वहां तीन पल्यकी आयु होती है, तीन पल्यतक बराबर कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुये अनेक तरह के सुख भागकर बचे हुये पुण्यके अनुसार देव होता है इसमें पात्रोंके भेदसे उसके सुखमें भेद पडनेका कारण यह है कि वह जैसे पात्रको दान देता है उस पात्रके निमित्तसे उसके परिणाम भी वैसेही शुम होते है अर्थात् उत्तम पात्रके संयोगसे उत्तम शुभ परिणाम होते हैं और जघन्यसे जघन्य । तथा जैसे शुभ परिणाम होते हैं वैसा ही पुण्य होता है और जैसा पुण्य होता है वैसा ही भोगमूमि और स्वर्गों के सुख मिलते हैं । तथा जो सम्यग्दर्शनरहित है परंतु व्रत और तप