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दूसरा अध्याय
ज्ञानमय॑ तपोंऽगत्वात्तपोऽय तत्परत्वतः । द्वयमय॑ शिवांगत्वात्तद्वंतोऽर्ध्या यथागुणं ।। ६६ ॥ ___ अर्थ--दीक्षा यात्रा प्रतिष्ठा आदिमें काम आनेवाला ऐसा जो साधकका ज्ञान है वह पूज्य है क्योंकि वह अनशन आदि तपका कारण है । तथा नैष्ठिकम रहनेवाला तप भी पूज्य है क्योंकि वह ज्ञानकी वृद्धिमें कारण है और गणधरदेवमें रहनेवाले ज्ञान और तप दोनों ही पूज्य हैं क्योंकि ये दोनों ही मोक्षके कारण है । तथा ज्ञान और तप दोनोंको धारण करनेवाले ज्ञानी और तपस्वी अपने अपने गुणों के अनुसार विशेष रीतिसे पूज्य हैं अर्थात् जो गुण जिसमें अधिक है उसीकी मुख्यतासे वह अधिक पूज्य है। अभिप्राय यह है कि ज्ञान तपका कारण है और तप ज्ञान बढानेमें कारण है तथा दोनों ही मोक्षके कारण हैं इसलिये यदि ये अलग अलग हो तब भी इनकी पूजा करनी चाहिये । यदि दोनों एक जगह मिले हुये हों तब भी पूजा करनी चाहिये और इनक धारण करनेवालोंकी भी पूजा करनी चाहिये ॥ ६६ ॥
आगे--मिथ्यादृष्टि सम्यग्दृष्टी पुरुषोंको सुपात्रके लिये आहारदान देनेसे जो पुण्य प्राप्त होता है उसका विशेष फल और अपात्रोंको धन देना व्यर्थ है ऐसा दिखलाते हुये कहते हैं
१यहांपर 'तत् ज्ञानं परं यस्मात् ' ऐसा समास करना चाहिये।
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