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दूसरा अध्याय
दुर्गतियों को प्राप्त होते हुये संसा
देव होकर अंतमे अनेक रमें परिभ्रमण करते हैं। यहांपर यह भी समझलेना चाहिये कि जो भोगभूमियोमें उत्पन्न होते हैं, मानुषोत्तर पर्वत से लेकर स्वयंप्रभ प्रर्वत तक जो तिर्यंच ह, तथा जो म्लेच्छ राजा हैं, हाथी घोडे आदि सुखी जानवर हैं, वैश्या आदि नीच मनुष्य हैं, जो कि भोगोपभोगोंका सुख भोगते हुये सुखी जान पडते हैं वे सब कुपात्रदान से उत्पन्न हुये मिथ्यात्व के साथ रहने वाले पुण्यकर्म के उदय से ही हुये हैं । जबतक उनका पुण्योदय है तबतक ही वे सुखी रहते हैं, पीछे मिथ्यात्व कर्म के साथ होनेवाले तीव्र पापसे वे अनेक दुर्गतियों में दुःख पाते हैं ।
इसीतरह 'सम्यग्दृष्टी जीव सुपात्र अर्थात् महातपस्वियोंको अथवा उत्तम मध्यम जघन्य इन तीनों तरहके पात्रको अपने और उस पात्र के कल्याण के लिये जो कुछ दान देता है और उस दान देने से जो कुछ उसे पुण्य प्राप्त होता है उस पुण्यके उदयसे बडीबडी रूद्धियोंको धारण करनेवाले कल्पवासी देवोंके सुख
१ - पात्राय विधिना दत्वा दानं मृत्वा समाधिना । अच्युतांतेषु कल्पेषु जायते शुद्धदृष्टयः ॥ ज्ञात्वा धर्मप्रसादेन तत्र प्रभवमात्मनः । पूजयंति जिनार्थ्यास्ते भक्त्या धर्मस्य वृद्धये ॥ अर्थ - सम्यग्दृष्टी जीव विधिपूर्वक सत्पात्रको दान देकर अंतमें समाधिपूर्वक मरणकर अच्युत स्वर्गपर्यंत किसी स्वर्ग में देव होते हैं। वहां वे धर्म के प्रसाद से स्वर्गमें अपना जन्म जानकर धर्मवृद्धिकेलिये भक्तिपूर्वक श्री जिनेंद्र देवकी पूजा करते हैं ।