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दूसरा अध्याय
पात्रागमविधिद्रव्यदेशकालानतिक्रमात् ।
दानं देयं गृहस्थेन तपश्चर्यं च शक्तितः ।। ४८ ।। अर्थ - - गृहस्थको 'पात्र, शास्त्र, विधि, द्रव्य, देश और कालके अनुसार रत्नत्रय के बढानेवाली वस्तु दान देनी चाहिये और अपनी शक्तिके अनुसार अनशन आदि तप करना चाहिये | अभिप्राय यह है कि प्रत्येक गृहस्थको अपनी शक्तिके अनुसार दान और तपश्चरण करना चाहिये ॥ ४८ ॥
आगे ——- सम्यग्दृष्टी श्रावकके नित्य आवश्यक समझकर किये हुये दान और तपके अवश्य होनेवाले विशेष फलको कहते हैं-
नियमेनान्वहं किंचिद्यच्छतो वा तपस्यतः । संत्यवश्यं महीयांसः परे लोका जिनश्रितः || ४९||
अर्थ - - परमात्माकी भक्ति करनेवाला भव्य पुरुष यदि प्रतिदिन नियमसे शास्त्रानुसार थोडा भी दान दे अथवा थोडा ही तपश्चरण करे तो भी उसे परलेोकमें अर्थात् दूसरे जन्म में इंद्र आदिके श्रेष्ठ पद अवश्य मिलते हैं ||४३||
१- वर्यमध्यजघन्यानां पात्राणामुपकारकं । दानं यथायथं देयं वैयावृत्यविधायिना ॥ अर्थ - वैयावृत्य करनेवालोंको उत्तम मध्यम और जघन्य ऐसे तीनों तरहके पात्रोंको उपयोगी ऐसा दान विधिपूर्वक अपनी शक्तिके अनुसार देना चाहिये ।