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सागारधर्मामृत
[१३७ आगे-उत्तम कन्या देनेवालेको एक साधर्मीका उपकार करनेसे बडे भारी पुण्यका लाभ होता है ऐसा दिखलाते हैं
सत्कन्यां ददता दत्तः सत्रिवर्गो गृहाश्रमः । गृहं हि गृहिणीमाहु ने कुड्यकटसंहतिं ॥ ५९॥ .
अर्थ-अपनी स्त्रीमें संतोष रखना, इंद्रियोंको वश करना, देव गुरु आदिकी सेवा करना और सत्पात्रको दान देना आदि श्रावकोंका धर्म कहलाता है । वेश्यासेवन आदि व्यसनोंसे रहित होकर निर्विघ्न द्रव्यका उपार्जन करना, उपार्जन किये हुये अर्थात् कमाये हुये द्रव्यकी रक्षा करना और रक्षा किये हुये द्रव्यको बढाना इन तीनों के द्वारा अपने भाग्यके अनुसार प्राप्त हुई जो ग्राम सुवर्ण आदि संपत्ति है उसे अर्थ कहते है । अपने आत्माके एक यथेष्ट और अपूर्व रससहित जो समस्त इद्रियों को प्रेम उत्पन्न करानेमें कारण है अर्थात् जिससे समस्त इंद्रियां तृप्त होती हैं और सुख मिलता है उसे काम कहते हैं । अपनी कुलीन स्त्रियोंके साथ समागम करनेवालों को इसका अनुभव होता है । अन्य शास्त्रों में भी ऐसा ही लिखा है कि-" संकल्परमणीयस्य प्रीतिसंभोगशोभिनः । रुचिरस्याभिलाषस्य नाम काम इति स्मृतिः ॥ १ ॥ अर्थात्-जो चित्तको अच्छा लगे, जो प्रेम और उपभोग करने में अच्छा जान पडे ऐसी सुंदर इच्छाका नाम काम है । ये तीनों ही अर्थात् धर्म अर्थ काम सुयोग्य स्त्रीके साथ होनेसे ही सिद्ध हो