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सागारधर्मामृत
[ १४१ योंको छोडकर वह स्वयं विरक्त हुआ है उसीप्रकार जिसको श्रेष्ठ कन्या वा धन आदि दिया है ऐसे साधर्मा पुरुषसे वा अन्य साधर्मी पुरुषसे भी विषयों को छुडाना चाहिये, और उन्हें विरक्त करना चाहिये ॥६२॥
आगे--इस पंचमकालके कारण लोग प्रायः आचरण - रहित ही देखे जाते हैं इससे कितने ही दाता लोगोंके चित्त संशय अथवा ग्लानिसे भरजाते हैं इसलिये ऐसे दाताओंको समाधान करनेके लिये चार श्लोक कहते हैं
दैवाल्लब्धं धनं प्राणैः सहावश्यं विनाशि च । बहुधा विनियुजानः सुधीः समयिकान् क्षिपेत् ॥६३॥
अर्थ-जो धन इस जन्ममें केवल पूर्व पुण्यके उदयसे विना पुरुषार्थ किये अर्थात् पिता आदि पूर्वजोंका कमाया हुआ ही मिला है वह भी अपने प्राणों के साथ अवश्य ही नष्ट होगा अर्थात् मर. नेके पीछे अपने काम न आवेगा, अपने साथ न जायगा ऐसे धनको मो लज्जा भय और पक्षपात आदि अनेक तरहसे खर्च करता है ऐसा अपना कल्याण चाहनेवाला कौन बुद्धिमान पुरुष है जो जैनधर्मको धारण करनेवाले गृहस्थ अथवा मुनिका तिरस्कार करे, अर्थात् कोई नहीं । अभिप्राय यह है कि धनान्य| लोग जब अपने लिये पूर्वजोंके मिले हुये धनको कार्य अकार्यका
९-पूर्वजोंके कमाये हुयेसे यह अभिप्राय है कि ऐसा धन उत्तम नहीं गिना जाता, उत्तम धन अपना कमाया हुआ गिना जाता है।
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