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दूसरा अध्याय
हैं परंतु जिसके श्रेष्ठ स्त्री नहीं है ऐसे गृहस्थको पृथ्वी सुवर्ण आदि दान देना व्यर्थ है क्योंकि जिस वृक्षका मध्यभाग घुन के कीडोंने बुरतिरहसे खा डाला है ऐसे वृक्षको जल सींचने से क्या लाभ है ! अर्थात् कुछ नहीं । अभिप्राय यह है । कि जब विना स्त्रीवालेको धन देना व्यर्थ है तब साधर्मी पुरुषको श्रेष्ठ कन्या देकर धन देना चाहिये ॥ ६१ ॥
आगे - विषयसुखों का उपभोग करनेसे ही चारित्रमोहनीय कर्मके उदयकी तीव्रता होती है और उन्हीं विषयसुखोंका उपभोग करनेसे वह चारित्रमोहनीय कर्मके उदयकी तीव्रता शांत हो जाती है । इसलिये उन्हीं उपभोगों के द्वारा चारित्रमोहनीय कर्म का तीव्र उदय शांत कर फिर वह विषयसुखों का उपभोग छोड देना चाहिये और अपने समान अन्य धर्मी लोगों से भी छुड़ाकर उन्हें विरक्त कराना चाहिये ऐसा उपदेश देते है
विषयेषु सुखभ्रांति कर्माभिमुखपाकजां । छित्वा तदुपभोगेन त्याजयेत्तान् स्ववत्परं ॥ ६२॥
अर्थ - अपने फल देनेके सन्मुख हुये चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे विषयोंमें जो सुखकी भ्रांति उत्पन्न हुई है अर्थात् ये विषय सुख के कारण हैं अथवा सुखस्वरूप हैं ऐसी जो विपरीत बुद्धि उत्पन्न हुई है उसे विषयसेवन के द्वारा नष्ट कर फिर उन विषयों को छोड़ देना चाहिये । तथा जिसप्रकार उन विष