________________
| १३६ ]
दूसरा अध्याय जो योग्य कन्याको सुशिक्षित कर योग्य वर के लिये विवाहकर देता है वह गृहस्थोंमें मुख्य गिना जाता है तथा वही इस लोक संबंधी और परलोक संबंधी सब काम कर सकता है। अपि शब्दसे इस लोक संबंधी कार्योंकी सामर्थ्य सूचित होती है ।। ५८ ॥ ___जातयोऽनादयःसर्वास्तक्रियापि तथाविधाः । श्रुतिःशास्त्रांतरं वास्तु प्रमाणं कात्र नः क्षतिः ॥ अर्थ-सब जातियां अनादिसे चली आती हैं और उनकी क्रियायें भी अनादिसे चली आती हैं। इन क्रियाओंको कहनेवाला चाहे वेद हो, स्मृति हो अथवा और कोई शास्त्र हो हमें प्रमाण है क्योंकि इसमें हमारी कोई हानि नहीं है ।
सर्व एव हि. जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानि नं यत्र न व्रतदूषणं ॥ अर्थ-जिसमें सम्यग्दर्शनकी क्षति न हो और व्रतोंमें किसी तरहका दोष न आवे ऐसी लोकमें प्रचलित समस्त विधि जैनियोंको प्रमाण हैं। भावार्थ-वायुशुद्धि, गोमयशुद्धि, मृत्तिकाशुद्धि, जलशुद्धि आदि ऐसी समस्त विधि जो कि लोगोंने प्रचलित हैं मान्य हैं कि जिनके करनेमें सम्यक्त्वकी हानि और व्रतोंमें दोष न आवे वे सब जैनियोंको प्रमाण हैं।
स्वजात्यैव विशुद्धानां वर्णानामिह रत्नवत् । तक्रियाविनियोगाय जैनागमविधिः परं ॥ अर्थ-जिसप्रकार रत्न स्वभावसे ही शुद्ध है परंतु उसे शाणपर रखना कोने निकालना आदि उसके संस्कार केवल उसकी शोभा बढानेके लिये किये जाते हैं। उसीप्रकार अपनी जातिसे शुद्ध होनेपर भी ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्गों को विशेष महत्त्व । लाने के लिये जैनशास्त्रोंके अनुसार सब संस्कार आदि विधि करना चाहिये।