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दूसरा अध्याय यथायोग्य किसी एक विवाहकी विधिसे विवाहकर वस्त्र आदिसे यथायोग्य सत्कार कर देता है वह कन्या देकर सत्कार करनेवाला गृहस्थ उन दोनों वरवधूओंके लिये धर्म अर्थ और
विमुक्तकंकणं पश्चात्स्वगृहे शयनीयकं ।
अधिशय्य यथाकालं भौगांगैरुपलालितं ॥ संतानार्थमृतावेव कामसेवां मिथो भजेत् ।
शक्तिकालव्यपेक्षोयं क्रमोऽशक्तेष्वतोऽन्यथा ॥ अर्थ-तदनंतर अर्थात् व्रतावरण क्रिया समाप्त होनेके पीछे पिताकी आज्ञानुसार विवाहके योग्य कुलमें जन्मी हुई कन्याको विवाहकर स्वीकार करनेवालेको वैवाहिकी क्रिया कही है। उसकी विधि यह है कि प्रथम ही सिद्धार्चनविधि अर्थात् विधिपूर्वक सिद्धपरमेष्ठीकी आराधना अच्छीतरह करे । पीछे गार्हपत्य दाक्षिणामि और आहवनीय ऐसी तीन अग्मियोंको स्थापनकर विधिपूर्वक उनकी पूजा करे और विवाहकी समस्त क्रियायें इन अमियोंके समक्षमें ही करे। किसी किसी पवित्र प्रदेशमें सिद्धप्रतिमाके सन्मुख अथवा सिद्धप्रतिमा न होनेपर सिद्धयंत्रके सन्मुख उन दोनों वर कन्याओंके पाणिग्रहणका उत्सव बडे ठाठसे करे । वधू और वर दोनों ही वेदीपर सिद्ध कीगई तीन दो अथवा एक ही अग्निकी प्रदक्षिणा दें और फिर आसन बदलकर बैठ जायं अर्थात् वरके आसनपर वधू और वधूके आसनपर वर बैठे । जिनको पाणिग्रहण दीक्षा दे दी गई है अर्थात् जिनकी विवाहविधि समाप्त हो चुकी है ऐसे वे दोनों ही वरवधू देव और
अग्निके समक्ष सात दिनतक ब्रह्मचर्य व्रत धारण करें । तदनंतर उनके विहार करने योग्य किसी भूमिका ( किसी देश वा नगरका ) देशाटन ।
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