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दूसरा अध्याय उनके उत्कृष्ट गुणोंमें प्रेम रखकर अथवा जिसमें जो गुण उस्कृष्ट हो उसीमें प्रेम रखकर उन्हें दान देकर, मान देकर, आसन देकर, वचनालापकर तथा और भी आदरसत्कारके उपायोंसे पाक्षिक श्रावकको अथवा ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य इन तीनों वर्णोमेंसे किसी गृहस्थको तृप्त करना चाहिये । अभिप्राय यह है कि प्रत्येक गृहस्थको ये पांचों तरह के पात्र तृप्त करने चाहिये।
यहांपर मोक्ष प्राप्त करनेवाले मुनि और श्रावकोंको रत्नत्रय गुणोंके बढानेके लिये तृप्त करना पात्रदान कहलाता है और भोगोपभोग सेवन करनेवाले गृहस्थोंको वात्सल्य भावसे यथायोग्य अनुग्रह करना समानदत्ति कहलाती है । शास्त्रकारने इसप्रकार दो विभाग किये हैं ॥ ११॥ ___ आगे-समानदत्तिकी विधिका उपदेश देते हैंस्फुरत्येकोपि जैनत्वगुणो यत्र सतां मतः । तत्राप्यजैनैः सत्पात्रोत्यं खद्योतवद्रवौ । ५२ ॥
अर्थ-एक जिनेंद्र ही देव है क्योंकि वही मुझे संसार समुद्रसे पार करनेवाला है ऐसे गाढ श्रद्धानका नाम जैनत्व गुण है । यह जैनत्व गुण साधु लोगोंको भी इष्ट है। जिस पुरुषमें ज्ञान तपसे रहित केवल एक जैनत्व गुण अर्थात् सम्यग्दर्शन दैदीप्यमान हो उसक सामने महादेवकी भाक्त विप्णुको भाक्त आदि भूतों से जकड़े हुये अजैन पुरुष यदि ज्ञान
KAARIAGIRIHamamacmeaniwa-MITRARA