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दूसरा अध्याय अभिमान नहीं करता और आज्ञा ऐश्वर्य आदि प्राप्त हुई | संपदाओंसे तृप्त होता हुआ अर्थात् उनमें किसी तरहकी तृष्णा न करता हुआ अंतमें तीनों लोकोंका तिलक होता है अर्थात् मोक्षपदको प्राप्त करता है । भावार्थ-सम्यग्दृष्टी पुरुषपर अनुराग करनेवाला पुरुष भी अनेक तरह की सुख संपत्तियोंका उ| पभोग करता हुआ अंतमें मुक्त होता है ॥ ५५ ॥
आगे-गृहस्थाचार्यकेलिये अथवा यदि गृहस्थाचार्य न हो तो किसी मध्यम पात्रके लिये कन्या सुवर्ण आदि दान देना पाक्षिक श्रावकका कर्तव्य है ऐसा उपदेश देते हैं
निस्तारकोत्तमायाथ मध्यमाय सधर्मणे । कन्याभूहेमहस्त्यश्वरथरत्नादि निर्वपेत् ।। ५६ ।।
अर्थ--जो संसारसमुद्रसे पार जाने के लिये प्रयत्न करानेवाले गृहस्थों में श्रेष्ठ हैं और जिसके क्रिया मंत्र व्रत आदि सब अपने समान हैं ऐसे गृहस्थाचार्य के लिये अथवा यदि ऐसा गृहस्थाचार्य न मिले तो मध्यम अथवा जघन्य श्रावकके लिये कन्या, भूमि, सुवर्ण, हाथी, घोडे, रथ, रत्न, और आदि शब्दसे वस्त्र, घर, नगर, आदि धर्म अर्थ काम इन तीनों पुरुषार्थोंको सिद्ध करनेवाले पदार्थों का दान देना चाहिये ।
इस श्लोकमें जो अथ शब्द दिया है वह दूसरे पक्षको सूचित करता है अथवा अधिकारको सूचित करता है । इस श्लोकके