________________
१२८ ]
दूसरा अध्याय कृत्रिम सुवर्ण रखनेमें प्रसिद्ध पुरुषको अथवा वर्णकी उत्कृष्टतासे प्रसिद्ध पुरुषको कौन ढूंडता है ? भावार्थ--जिसप्रकार झेरसे ही दरिद्रता रोग आदि सब तरहके दुःख दूर करनेवाला कोई तांत्रिक पुरुष प्रसन्न होकर अपनी दरिद्रता आदि सब दूर करना चाहता हो तो उसे छोड़कर झूठा बनाया हुआ सुवर्ण रखनेवाले पुरुषके समीप कोई नहीं जाता उसीप्रकार बुद्धिमान पुरुष प्रथम जौनयोंका ही उपकार करते हैं, अन्यमतवालोंका नहीं । क्योंकि उनका उपकार करनेसे धर्मकी कुछ वृद्धि नहीं होती ॥ ५३॥
आगे--नाम स्थापना आदि निक्षेपोंसे विभाग किये हुये चारोंप्रकारके जैनी पात्र हैं और उनमें भी उत्तरोत्तर दुर्लभ है ऐसा दिखलाते हैं
नामतः स्थापनातोऽपि जैनः पात्रायते तरां। स लभ्यो द्रव्यतो धन्यै भवतस्तु महात्मभिः ॥ ५४ ।। - अर्थ-जिसकी जैन ऐसी संज्ञा है ऐसा नामजैन, तथा जिसमें यह वही जैन है अथवा वैसा ही जैन है ऐसी कल्पना की गई हो ऐसा स्थापनाजैन ये दोनों ही जैन अजैन पात्रोंकी अपेक्षा मोक्षके कारण ऐसे रत्नत्रयगुणोंको प्राप्त करनेवाले पात्रके समान बहुत उत्कृष्ट पात्र जान पडते हैं । क्योंकि इन दोनोंके सम्यग्दर्शन के साथ साथ होनेवाले पुष्यकर्मोंका आस्रव होता रहता है । तथा वही द्रव्यजैन अर्थात् जिसमें भागामी