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सागारधर्मामृत
[ १२७ और तपश्चरणसहित हों तथापि वे ऐसे प्रभारहित जान पडते हैं जैसे सूर्यके सामने खद्योत । अभिप्राय यह है कि जैसे सूर्यके सामने खद्योत प्रभा रहित हो जाता है उसीप्रकार ज्ञान तपश्चरणसे रहित सम्यग्दृष्टि जैनीके सामने ज्ञानतपश्चरण सहित मिथ्यादृष्टि भी प्रभारहित हो जाता है । जैनी ज्ञान तपसे रहित होकर भी सूर्यके समान है और अन्यधर्मी ज्ञान तप सहित भी खद्योतके समान है । अपि शब्दसे यह सूचित होता है कि जब जैनी ज्ञान तप रहित होकर भी सूर्यके समान है तब फिर यदि वह ज्ञान तप सहित हो तो फिर उसकी महिमाका क्या पार है ।। ५२ ॥
आगे--अपना कल्याण चाहनेवाले लोगोंको जैनियोंपर अवश्य अनुग्रह करना चाहिये ऐसा कहते है
वरमेकोऽप्युपकृतो जैनो नान्ये सहस्रशः । दलादिसिद्धान्कोऽन्वेति रससिद्धे प्रसेदुषि ॥ ५३॥
अर्थ--यदि किसी एकही जैनीका उपकार किया जाय तो वह बहुत अच्छा है परंतु अन्यमतवाले हजारों पुरुषोंका भी उपकार करना उससे अच्छा नहीं है इसी बातको दृष्टांत देकर स्पष्ट दिखलाते हैं कि यदि पारे आदि औषधियोंसे ही दरिद्रता व्याधि बुढापा आदिको अवश्य दूर करनेकी शक्ति रखनेवाला प्रसन्न होकर अपना अनुग्रह करना चाहे तो उसे छोडकर जिससे कोई दूसरी चीज नहीं खरीदी जा सकती ऐसे
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