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दूसरा अध्याय
पीनेका स्थान ) भी बनवाना चाहिये । तथा जिनपूजाके लिये पुष्पवाटिका (बगीची) वावडी सरोवर आदिके बनवाने में भी कोई दोष' नहीं है । पहिले अपि शब्दसे प्याऊका ग्रहण किया गया है । दूसरा अपि आदर वाचक है और यह सूचित करता है कि जो जीव अपने विषयसुख सेवन करने के लिये खेती व्यापार आदि करते हैं वे यदि धर्मबुद्धिसे बगीची वावडी आदि बनवावें तो उनको लोकमें व्यवहारकी दृष्टिसे कोई दोष नहीं हैं तथापि जो बगीची आदि बनवाना नहीं चाहते हैं वे भी यदि द्रव्यके बदले पुष्प आदि लेकर उनसे भगवानकी पूजा करें तो भी उन्हें बड़े भारी पुण्यकी प्राप्ति होती है । अभिप्राय यह है कि औषधालय, अन्नक्षेत्र खोलना, प्याऊ बनवाना और जिनपूजा में पुष्प जल आदि चढानेके लिये बगीचा वावडी कुमा आदि बनवाना पाक्षिक श्रावकका कर्तव्य है | ||४० ॥
आगे - कपटरहित भक्ति से किसीतरह भी जिनेंद्रदेव की सेवा करनेवाले जीवके समस्त दुःखोंका नाश हो जाता है
१- जिनमंदिर समवसरणकी प्रतिकृति अर्थात् नकल है । जिसप्रकार समवसरण में पुष्पवाटिका वावडी तडाग आदि होते हैं उसी प्रकार जिनमंदिर की सीमा में भी होने चाहिये अन्यथा एकतरहकी कमी समझी जायगी। जिनपूजनमें पुष्पोंकी आवश्यकता पड़ती ही है इसलिये पुष्पोंके लिये बगीचा और जलके लिये वावडी आदि बनवाना सर्व उचित और शास्त्रोक्त है ।