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प्रथम अध्याय
धारण करते हैं वे दर्शनिक आदि ग्यारह प्रकारके श्रावक वा उपासक कहलाते हैं ॥ १७ ॥
आगे-पापोंके दूर करनेके लिये नित्यपूजा आदि धर्मक्रियायें करनी चाहिये और उन धर्मक्रियाओंको सिद्ध करनेके लिये आजीविकाके लिये खेती व्यापार आदि छह कर्म करनेसे जो अवश्य होनेवाला पापका लेश है वह श्रावकों को पक्ष आदिके द्वारा तथा प्रायश्चित्तके द्वारा अवश्य ही दूर करना चाहिये । इसीका उपदेश देने के लिये कहते हैंनित्याष्टाह्निकसच्चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमैन्द्रध्वजा-। विज्याः पात्रसमक्रियान्वयदयादत्तीस्तपःसंयमान् ।। स्वाध्यायं च विधातुमादृतकृषीसेवावणिज्यादिकः । शुध्द्याऽऽप्तोदितया गृही मललवं पक्षादिभिश्च क्षिपेत् ॥१८॥
अर्थ-'नित्यमह, आष्टाह्निकमह, चतुर्मुखमह, कल्पद्रुममह और ऐंद्रध्वज यह पांच प्रकारकी इज्या अर्थात् पूजा,
१ भगवजिनसेनाचार्यने आदिपुराणमें लिखा है-प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम् । चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमश्चाष्टाह्विकोऽपि च ॥ अर्थ-अरहंतोकी पूजाका नाम इज्या है और वह चार प्रकारकी है-नित्यमह, आष्टाह्निकमह, चतुर्मुख और कल्पवृक्ष ।
तत्र नित्यमहो नाम शश्वजिनगृहं प्रति । स्वगृहान्नीयमानाऽर्चा गन्धपुष्पाक्षतादिका ॥ चैत्यचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापणं च यत् । शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम् ॥ अर्थ-प्रत्येक दिन