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प्रथम अध्याय आगे-पक्ष चर्या और साधन इन तीनोंका स्वरुप कहते हैंस्यान्मैत्राद्युपबृंहितोऽखिलबधत्यागो न हिंस्यामहं । धर्माद्यर्थमितीह पक्ष उदितं दोषं विशोध्योज्झितः॥ सूनौन्यस्य निजान्वयं गृहमथो चर्या भवेत्साधनं । त्वंतेऽन्नेहतनूज्झनाद्विशदया ध्यात्यात्मनः शोधनं ।। १९॥
अर्थ-मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार गुणोंके निमित्तसे वृद्धिको प्राप्त हुआ जो सब प्रकारकी हिंसाका त्याग है, अर्थात्- धर्म, आहार, औषध, देवता और मंत्रसिद्धि आदि कार्यों के लिये मैं कभी त्रस जीवोंका घात नहीं
आत्मान्वयप्रतिष्ठार्थ सूनवे यदशेषतः। समं समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ॥ सैषा सकलदत्तिः स्यात् स्वाध्यायः श्रुतभावना । तपोऽनशनवृत्यादि संयमो व्रतधारणम् ॥
अर्थ-अपना वंश स्थिर रखने के लिये अपने पुत्रको समस्त धन और धर्मके साथ अपना कटुंब समर्पण करनेको सकलदत्ति कहते हैं। शास्त्रोंका पढना पढाना चितवन करना आदि स्वाध्याय है। उपवास आदि करना तप है और व्रत धारण करना संयम कहलाता है । १-सव प्राणियोंपर दयाकर उनका दुःख दूर करना अथवा किसी प्राणिको दुःख न हो ऐसी इच्छा रखना अथवा किसीके साथ बैर न रखना मैत्री कहलाती है। २-अपनी अपेक्षा जो गुणोंमें बड़े हैं उन्हें देखकर प्रसन्न होना, उनके साथ ईर्षा आदि न करना प्रमोद है। ३-दीन, दुःखी और दरिद्री जीवोंपर अनुग्रह करना कारूण्य है । ४-मिथ्यादृष्टि जीवोंपर रागद्वेष न कर मध्यस्थभाव रखना माध्यस्थ है।।