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सागारधर्मामृत
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आदिके दर्शनशास्त्र को पढता है, और ( इसका नाम हढचर्या हैं) तदनंतर वह प्रत्येक महीनेकी दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशीको रात्री की प्रतिमायोग धारण करनेका अभ्यास करता है । ( इसका नाम उपयोगिताक्रिया है) : इसप्रकार आठों संस्कार कर वह धन्य और पुण्यवान पुरुष द्रव्य और भाव दोनों प्रकारके पापोंको नष्ट करता है । अभिप्राय यह है कि जो कोई अन्यधर्मी अपना मिथ्याधर्म छोडकर जैनधर्म पालन करना चाहे तो उसे ये ऊपर लिखे हुये आठ संस्कार करने ही चाहिये । यह उसके लिये एकतरहका प्रायश्चित्त है। इन संस्कार वा क्रियाओंके किये बिना वह जैनधर्म पालन करनेका योग्य पात्र नहीं गिना जाता । जबतक उसके संस्कार न बदले जायंगे तबतक उसपर मिथ्या संस्कारोंका असर बना ही रहेगा। इसलिये ये क्रियायें कहीं गई हैं ॥ २१ ॥
३- तदास्य दृढचर्याख्या क्रिया स्वसमयश्रुतं । निष्ठाप्य श्रृण्वतो ग्रंथान् बाह्यानन्यांश्चकांचन || अर्थ- फिर अपने धर्मशास्त्र अच्छीतरह पढकर अन्यमतके दर्शन आदि लौकिक ग्रंथोंके अभ्यास करनेको ढचर्याक्रिया कहते हैं ।
४–दृढव्रतस्य तस्यान्या क्रिया स्यादुपयोगिता | पर्वोपवासपर्यंत प्रतिमायोगधारणं ॥ अर्थ - जिसके व्रत दृढ हो चुके हैं ऐसा भव्य जीव प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीके पवमें उपवास करके रात्रिको प्रतिमायोग धारण करता है उसे उपयोगिता क्रिया कहते हैं ।