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सागारधामृत
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को अर्थात् पंचनमस्कार महामंत्रको स्वीकार करता है, ( इसको स्थानलाभ क्रिया कहते हैं।) फिर वह कुदेवोंका विधानेन स्पृष्ट्वैनमधिमस्तकं । पूतोसि दीक्षयेत्युक्त्वा सिद्धशेषां च लंभयेत् ॥ ततः पंचनमस्कारपदान्यस्मायुपादिशत् । मंत्रोयमखिलात्पापात्त्वां पुनीतादितीरयन् ॥ कृत्वा विधिमिमं पश्चात्पारणाय विसर्जयेत् । गुरोरनुग्रहात्सोपि संप्रीतः स्वं गृहं व्रजेत् ॥ ... अर्थ-जिनालयके निर्मल मंडपमें अनेक रंगके वारीक पिसे चूर्णसे अथवा पानीमें मिलाये हुये पिसे चूर्णसे अथवा चंदन आदि सुगंधित घिसी हुये द्रव्योंसे किसी जानकार मनुष्यसे शास्त्रामें कही हुई विधिके अनुसार आठ पांखुरीका कमल अथवा समान गोलाकार श्री जिनेंद्रदेवका समवसरणमंडल लिखावे । और उसके मध्यभागमें श्रीजिनेंद्रदेवकी प्रतिमा स्थापनकर उसकी पूजा करावे । तदनंतर वह गुरु उस शिष्यको विधिपूर्वकं उस प्रतिमाके सामने बिठाकर :' तुझे यह उपासकदीक्षा देता हूं" ऐसा कहता हुआ उसके मस्तकको बार वार स्पर्श करे । इसप्रकार पंचमुष्ठि करे अर्थात् पांच बार उसके मस्तकको स्पर्श करे और फिर " तू पवित्र है अब उपासकदीक्षा ग्रहण कर " इसप्रकार कहकर उसके मस्तकपर तीर्थोदक छिडके उसके बाद " यह मंत्र तुझे समस्त पापोंसे पवित्र करेगा" यह कह कर उस शिष्यको पंच नमस्कारमंत्रका उपदेश दे । इसप्रकार सब विधि करके उसे पारणा करनेकेलिये आज्ञा देवे, तथा वह शिष्य भी " आज मुझपर गुरुकी बडी कृपा हुई है " इसप्रकार बडा हर्ष मानकर घर जावे। इसे स्थानलाभ कहते हैं।