________________
८८]
दूसरा अध्याय पहिले कहे हुये मूलगुण अणुव्रत आदि 'देशव्रतको धारण करता है, ( इसे व्रतलाभक्रिया कहते हैं ) तदनंतर प्रथम ही श्रावककी दीक्षा धारणकर अर्थात् श्रावकके व्रत ग्रहणकर गुरुके मुखसे गणधरादि देवोंके द्वारा पूज्य ऐसे अपराजित रेमहामंत्रभव्यात्मा धर्मस्वीकाररूप अवतार लेता है इसलिये इस अवतारको धर्मजन्म कहते हैं । अभिप्राय यह है कि जब यह जीव एक शरीरको छोडकर दूसरे शरीरको धारण करता है तब वह उसका शरीरजन्म गिना जाता है । इसीतरह यह जीव जब मिथ्यात्वधर्मको छोडकर सम्यग्दर्शन स्वीकार करता है तब वह उसका धर्मजन्म कहना ही चाहिये ।
१-ततोस्य वृत्तलाभः स्यात्तदैव गुरूपादयोः । प्रणतस्य व्रतवातं विधानेनोपसेदुषः ॥ अर्थ-जिससमय इस भव्यके गुरूके उपदेशसे सम्यक्त्व प्रगट होता है उसीसमय यदि वह गुरुके चरणकमलोंको नमस्कारकर विधिपूर्वक आठ मूलगुण आदि व्रत धारण करे तो उसकी वह वृत्तलाभाक्रिया कही जाती है।
२-ततः कृतोपवासस्य पूजाविधिपुरस्सरं । स्थानलाभो भवेदस्य तत्रायमुचितो विधिः ॥ अर्थ-वृत्तलाभके पीछे जिनेंद्रदेवकी पूजाकर उपवासादि करनेको स्थानलाभ कहते हैं। इसका क्रम इसप्रकार है
जिनालये शुचौ रंगे पद्ममष्टदलं लिखेत् । विलिखेद्वा जिनास्थानमंडलं समवृत्तकं ॥ श्लक्ष्णेन पिष्टचूर्णेन सलिलालोडितेन वा । वर्तनं मंडलस्येष्टं चंदनादिद्रवेण वा ॥ तस्मिन्नष्टदले पद्मे जैने वास्थानमंडले । विधिना लिखिते तज्जैविष्वग्विरचितार्चने ॥ जिनााभिमुखं सूरिविधिनैनं निवेशयेत् । तवोपासकदीक्षेयमिति मूर्ध्नि मुहुः स्पृशन् ॥ पंचमुष्टि