________________
सागारधर्मामृत
[ १०५
प्रसिद्ध ही है कि उत्कृष्ट विशुद्ध सम्यग्दर्शन यदि अकेला भी हो तो भी उस एकसे ही अतिशय पुण्यस्वरूप तीर्थकर प्रकृतिका बंध हो जाता है । अभिप्राय यह है कि अरहंत के गुणोंमें अनुराग रखकर तदाकार वा अतदाकार प्रतिमा में उन अरहंतदेवका स्थापन करना चाहिये और फिर जल चंदन आदि उत्तम सामग्री से मनोहर काव्य पढते हुये उनकी ऐसी पूजा | करनी चाहिये कि जिससे उन भव्य जीवोंका विशुद्ध सम्यग्दर्शन और भी मजबूत हो जाय और उससे उसे तीर्थकर पद मिल जाय ॥ ३१ ॥
आगे--अहिंसादि अणुव्रतों को पालन करनेवाले ऐसे जिनेंद्रदेवकी पूजा करनेवाले भव्य जीवोंको इच्छानुसार विशेष फलकी प्राप्ति होती है ऐसा कहते हैं-
दृक्पूतमपि यष्टारमर्हतोऽभ्युदयश्रियः । श्रत्यहं पूर्विकया किं पुनर्ब्रभूषितं ||३२||
अर्थ -- ग्रंथकार अपि शब्दसे आश्चर्य प्रगट करते हैं अर्थात् आश्चर्य दिखलाते हुये कहते हैं कि जो केवल सम्यग्दर्शनसे ही विशुद्ध है मूलगुण उत्तरगुणों से रहित हैं ऐसे अरहंतदेवकी पूजा करनेवाले श्रावकों को बडप्पन, आज्ञा, ऐश्वर्य, बल, परिवार और भोगोपभोग आदि संपदायें " पहिले मैं प्राप्त होऊं, पहिले मैं प्राप्त होऊं " इसप्रकार परस्पर ईर्षा करती हुईं बहुत शीघ्र प्राप्त हो जाती हैं तब फिर जो सम्यग्दर्शनसे पवित्र हैं और