________________
१०६ ]
दूसरा अध्याय अहिंसादि व्रतरूप अलंकारोंसे भूषित हैं ऐसे जिनेंद्रदेवकी पूजा करनेवाले श्रावकोंको उन संपत्तियों के प्राप्त होनेका क्या ठिकाना है उन्हें तो वे संपदायें विशेष रूपसे अवश्य मिलती हैं ॥३२॥ आगे--जिनपूजामें विघ्न न आनेका उपाय बतलाते हैं
यथावं दानमानाद्यैः सुखीकृत्य विधर्मिणः । सधर्मणः स्वसात्कृत्य सिध्द्यर्थी यजतां जिनं ।।३३॥
अर्थ-जिसकी ऐसी इच्छा है कि जिनपूजा निर्विघ्न समाप्त हो अथवा शुद्ध आत्माकी प्राप्ति हो ऐसे भव्य पुरुषोंको उचित है कि वह प्रथम ही शैव वैष्णव आदि विधर्मी लोगोंको अथवा सब धर्मोंसे विमुख लोगोंको यथायोग्य धनादिक देकर, उनका आदर सत्कार कर, उनके आनेपर खडे होना, उनके पीछे चलना, आसन देना आदि समयानुसार आदर सत्कारसे उन्हें सुख देकर अनुकूल करे, और फिर सहधर्मी अर्थात् जैनियोंको अपने स्वाधिन कर जिन पूजा करावे । अभिप्राय यह है कि जिन पूजा रथयात्रा आदिमें विघ्न करनेवाले प्रायः विधर्मी लोग ही होते हैं इसलिये जिसतिसतरहसे पहिले उनको प्रसन्न करना चाहिये तथा सहधर्मियोंको भी अपनेमें शामिल कर लेना चाहिये ऐसा करनेसे दैवी विघ्नके सिवाय कोई लौकिक विघ्न नहीं आ सकते ॥३३॥
आगे-'स्नानकर शरीर शुद्धकर जिनपूजा करनी
१-नित्यं स्नानं गृहस्थस्य देवार्चनपरिग्रहे । यतेस्तु दुर्जन| स्पर्शात्स्नानमन्याद्विगर्हितं ॥ अर्थ-जिनपूजा आदि करनेके लिये