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सागारधर्मामृत
[१०७ चाहिये तथा जिसने स्नान नहीं किया है उसे स्नान किये हुये किसी अन्यसे पूजा करानी चाहिये ऐसा कहते हैं--
ज्यारंभसेवासंक्लिष्टः स्नात्वाऽऽकंठमथाशिरः। स्वयं यजेताहत्पादानस्नातोऽन्येन याजयेत् ॥३४॥
अर्थ-जो मनुष्य सीसमागम, खेती, व्यापार आदि आजीविकाके उपायोंसे थका हुआ है अर्थात् इन कामोंसे जिसके गृहस्थको नित्य स्नान करना चाहिये और मुनिको दुर्जन अर्थात् स्पर्श न करनेयोग्य ऐसे चांडाल आदि शूद्रोंके स्पर्श हो जानेपर स्नान करना चाहिए । विना दुर्जनके स्पर्श हुये स्नान करना मुनिके लिये निंद्य है।
वातातपादिसंस्पृष्टे भूरितोये जलाशये । अवगाह्याचरेन्स्नानमतोऽ न्यद्गालतं भजेत् ॥ अर्थ-जिस जलाशयमें पानी बहुत हो और उसपरसे भारी पवनका (हवाका) झकोरा निकल गया हो अथवा उसपर धूप पड रही हो तो उसमें अवगाहन करके अर्थात् डुबकी मारकर गृहस्थको स्नान करना चाहिये और जो ऐसा जलाशय न मिले तो फिर छने हुये पानीसे स्नान करना चाहिये ।
पादजानुकाटिग्रीवाशिरःपर्यंतसंश्रयं । स्नानं पंचविधं ज्ञेयं यथादोषं शरीरिणां ॥ अर्थ-केवल पैर धो लेना, घुटनेतक धोना, कमरतक धोना, कंठतक शरीर धो डालना और शिरतक स्नान करना इसप्रकार स्नान पांच प्रकारका है। उनमें से प्राणियोंको जिस दोषकेलिये जैसा स्नान उचित हो वही करना चाहिये। - ब्रह्मचर्योपपन्नस्य निवृत्तारंमकर्मणः । यद्वातद्वा भवेत्स्नानमंत्यमन्यस्य तु द्वयं ॥ अर्थ-जो ब्रह्मचारी हैं और जिन्होंने खेती व्यापार !
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