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सागारधर्मामृत
[८७ अर्थ-मिथ्याधर्म छोडकर जैनधर्म धारण करनेके लिये आठ प्रकारके संस्कार करने पड़ते हैं और वे संस्कार इस प्रकार है कि जो मिथ्यादृष्टि भव्य पुरुष तीर्थ अर्थात् धर्माचार्य अथवा गृहस्थाचार्यके उत्तम उपदेशसे जीव अजीव आदि तत्त्वोंका निश्चय करता है अर्थात् उनका श्रद्धान करता है ( इसका नाम अवतारक्रिया है ) फिर
१. इन संस्कारोंका विशेष वर्णन भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत आदिपुराणके ३९ वें पर्वमें दीक्षान्वयाक्रियाके अंतर्गत कहा है । अणुव्रत अथवा महाव्रत स्वीकार करने में सन्मुख हुई मनुष्योंकी वृत्तिको दक्षिा कहते हैं । दक्षिा संबंधी क्रियाओंको दीक्षान्वयाक्रया कहते हैं। उसके ४८ भेद है उनमें से जो भव्य जीव मिथ्यादृष्टि कुलमें उत्पन्न होकर जैनधर्म स्वीकार करते हैं उनके लिये आठ क्रियायें कही हैं और वे क्रमसे ये हैं
अवतारो वृत्तलाभः स्थानलाभो गणग्रहः । पूजाराध्यपुण्ययज्ञौ दृढचर्योपयोगिता॥अर्थ-अवतार, वृत्तलाभ, स्थानलाभ, गणग्रह, पूजाराध्य, पुण्ययज्ञ, दृढचर्या और उपयोगिता ये आठ क्रिया हैं इनमेंसे प्रत्येकका लक्षण इसप्रकार है कि दिगंबरमुनि अथवा धर्मनिष्ट विद्वान् गृहस्थाचार्य इनमेंसे किसी एकके उत्तम उपदेशसे भिथ्यात्वको छोडकर अरहत देवके कहे हुये तत्त्वोंके श्रद्धान करनेको अवतारक्रिया कहते हैं । इसका दूसरा नाम धर्मजन्म भी है क्योंकि
___ गुरुजनयिता तत्त्वज्ञानं गर्भः सुसंस्कृतः । तथा तत्रावतीर्णोसौ भव्यात्मा धर्मजन्मना ॥ अर्थ-गुरु ही पिता है और उससे उत्पन्न हुआ तत्त्वज्ञान उत्तम संस्कार सहित एक गर्भ है उस ज्ञानगर्भसे यह