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ANNARA
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दूसरा अध्याय ___आगे- जिसके आचरण आदि शुद्ध हैं ऐसे शूद्रको भी ब्राह्मण आदिके समान यथायोग्य धर्मक्रियाओंके करनेका अधिकार है ऐसा मानते हुये कहते हैं
शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुःशुध्द्यास्तु तादृशः। जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक् ।।
अर्थ- जिसके आसन आदि उपकरण अर्थात् सोने बैठनेकी सब चीजें शुद्ध हैं, मद्य मांसादिका त्याग करनेसे जिसके आचरण भी शुद्ध हैं और जिसका शरीर भी शुद्ध है ऐसा शुद्र भी जैनधर्मके सुननेके योग्य हो सकता है। इसका कारण यह है कि जो जातिसे हीन हैं अथवा छोटी जातिवाले हैं, अपिशब्दसे जो उत्तम जातिके तथा मध्यम जातिके ब्राह्मण क्षत्रियादिक हैं वे भी काललब्धि देशलब्धि आदि धर्म धारण करनेकी योग्य सामग्री मिलनेपर ही श्रावक धर्मको धारण कर सकते हैं । अभिप्राय यह है कि जैसे ब्राह्मण आदि उत्तम वर्णवाले पुरुष काललब्धि धर्म साधन करनेकी सामग्री मिलनेपरही श्रावकधर्मको धारण करते हैं उसीप्रकार 'शूद्र भी आचरण आदिसे शुद्ध होनेपर और काललब्धि आदि
जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्यहेतवः । येषु ते स्युस्त्रयो वर्णाः शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिताः ॥ अर्थ-शुक्लध्यानके कारण ऐसे उत्तम जाति और उत्तम गोत्रादि कर्म जिनमें विद्यमान हैं ऐसे तीन ( ब्राह्मण क्षत्री वैश्य ) वर्ण हैं और शेष सब शूद्र हैं क्योंकि उनमें जाति कुल आदिक शुद्ध नहीं है।
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