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दूसरा अध्याय चाहिये । क्योंकि अब मुझे जिनपूजा करनी चाहिये ऐसे संकल्प करनेमात्रसे जिनपूजा करनेवाला जीव राजग्रह नगरके शेठके जीव मेंडकके समान स्वर्गलोकमें भी पूज्य होता है। अपि शब्दसे यह सूचित होता है कि जब मेंडक ऐसे तिर्यंच जीव केवल जिनपूजाका संकल्प करनेसे ही स्वर्गमें भी पूज्य हुआ तब जो मनुष्य अपने शरीरसे अष्ट द्रव्य लेकर तथा बचनोंसे अनेक तरह के स्तोत्र पढकर भगवानकी पूजा स्तुति करता है उसकी महिमा कौन बर्णन कर सकता है ? अभिप्राय यह है कि मनुष्यमें ज्ञान आदि गुणोंकी योग्यता सबसे अधिक है, जब मेंडक ऐसा तिर्यंच ही पूजाके संकल्पमात्रसे उत्तम देव हुआ तो जो मनुष्य मन वचन कायसे अष्ट द्रव्य लेकर भगवानकी पूजा करता है उसकी क्या वात है, उसे सबसे अधिक सुख मिलना ही चाहिये और मिलता ही है ॥ २४ ॥
स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं । तद्गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दुःखदो मोहपाशः॥ अर्थ-जिनेंद्रदेवकी आराधना, गुरुके समीप विनय, धर्मात्मा लोगोंपर प्रेम, सत्पात्रोंको दान, विपत्तिमें फंसेहुये लोगोंका करुणा बुद्धिसे दुःख दूर करना, तत्त्वोंका अभ्यास, अपने प्रतोंमें लीन होना, और निर्मल सम्यग्दर्शनका होना ये सब क्रि. यायें जहां मन बचन कायसे चलती हैं वही गृहस्थधर्म वा गृहस्थपना विद्वानोंको मान्य है और जहांपर ये क्रियायें नहीं हैं वह गृहस्थपना इस लोक और परलोक दोनोंमें दुःख देनेवाला केवल मोहका जाल है।