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सागारधर्मामृत
[८५ संबंधसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है उसे जैनकुल कहते हैं। जो पुरुष पहिलेके अनेक जन्मों में बार बार सर्वज्ञदेवके कहे हुये जैनधर्मके पालन करनेसे प्राप्त हुये पुण्यकर्म के उदयसे जैनकुलमें 'उत्पन्न हुये हैं, और विना ही प्रयत्न किये अर्थात् जैनकुलमें उत्पन्न होनेसे ही अपने आप प्राप्त हुये सम्यग्दर्शन आदि गुणोंसे जो लोगोंके चित्तमें आश्चर्य उत्पन्न करते हैं ऐसे पुरुष सम्यग्दर्शन के साथ साथ प्राप्त होनेवाले पुण्यकर्मके उदयसे पुण्यवान पुरुषों में भी मुख्य गिने जाते हैं और वे इस वर्तमान समयमें बहुत थोडे हैं । तथा कितने ही भव्यपुरुष ऐसे हैं कि जो मिथ्यादृष्टियोंके ऐसे कुलमें उत्पन्न हुये हैं कि जिसमें जीविकाके लिये नाचना गाना आदि विद्या और वढईका काम शिल्प ये दोनों काम नहीं होते हैं अर्थात् जिस कुलमें विद्या और शिल्पको छोडकर शेष असि मसि कृषि और व्यापार ये चार ही जीविकाके उपाय हैं और जो कुल दीक्षा ग्रहण करनेके योग्य है । व्रतोंको प्रगट कर दिखाना अथवा व्रतोंके सन्मुख अपनी वृत्ति रखना इसको दीक्षा कहते हैं । यहांपर उपासकदीक्षा अर्थात् श्रावकों के व्रत धारण करना, जिनमुद्रादीक्षा अर्थात् मुनियों के व्रत धारण करना और यज्ञोपवीतसं
१. जो जीव पूर्व जन्ममें जैनधर्मका पालन करते थे वे इस जन्ममें भी आकर जैनकुलमें उत्पन्न होते हैं क्योंकि उनका संस्कार ही वैसा होता है।
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