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दूसरा अध्याय सुननेका अधिकारी होता है । अभिप्राय यह है कि जिनके गर्भाधान आदि सब संस्कार हुये हैं ऐसे ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य यज्ञोपवीत धारण करनेके पीछे आठ मूलगुणोंको धारणकर जैन धर्म और श्रावकाचार आदि शास्त्रोंके पढने सुननेके योग्य होते हैं । ( शूद्रोंके लिये बाइसवां श्लोक देखिये )॥१९॥
आगे--स्वाभाविक और पीछेसे ग्रहण किये हुये | अलौकिक गुणोंको धारण करनेवाले भव्य पुरुषोंको यथायोग्य रीतिसे कहते हैं
जाता जैनकुले पुरा जिनवृषाभ्यासानुभावाद्गुणैः येऽयत्नोपनतैः स्फुरति सुकृतामग्रेसराः केऽपि ते । येऽप्युत्पद्य कुडकुले विधिवशाहीक्षोचिते स्वं गुणैविद्याशिल्पिविमुक्तवृत्तिनि पुनंत्यन्वीरते तेऽपि तान्॥२०॥
अर्थ--जो जिनेंद्रदेवकी उपासना करते हैं अर्थात् जो अरहंत भगवानको ही देव मानते हैं उन्हें जैन कहते हैं। उनका जो कुल है अर्थात् दादा परदादा आदि पहिलेके पुरु| पोंकी परंपरासे आया हुआ जो वंश है जो कि जैन शास्त्रोंमें कहे हुये गर्भाधानादि निर्वाण पर्यंत क्रिया मंत्र संस्कार आदिके
१. अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवर्त्य । जिनधर्मदेशनाया भवति पात्राणि शुद्धधियः ॥ अर्थ-दुःख देनेवाले, दुस्तर और पापोंके स्थान ऐसे इन मद्य मांस आदि आठों पदार्थों का परित्याग कर अर्थात् आठ मूलगुण धारण कर निर्मलबुद्धिवाले पुरुष जिनधर्मके उपदेश सुननेके पात्र होते हैं।