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दूसरा अध्याय आगे- धर्माचार्योंका उपदेश जैनसिद्धांतसे विरुद्ध न होकर भी शिष्यों के अनुरोधसे अनेक तरह का होता है इसलिये ही श्रावकोंके आठ मूलगुण दूसरीतरहसे भी कहते हैं
मद्यपलमधुनिशासनपंचफलीविरतिपंचकाप्तनुती । जीवदया जलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः ॥१८॥
अर्थ-'मद्यका त्याग, मांसका त्याग, शहतका त्याग, रात्रीभोजनका त्याग, पांचों उदंबरफलोंका त्याग, सवैर दोपहर और शाम इन तीनों समय देवपूजा (देववंदना ) करना, दया करने योग्य प्राणियों पर दया करना और पानी छानकर कामम लाना श्रावकों के लिये ये आठ मूलगुण भी किसी किसी शास्त्र में लिखे हैं ॥ १८ ॥
आगे--इस मूलगुणों के प्रकरणका उपसंहार करते हैं और जो सम्यग्दर्शनको सदा शुद्ध रखकर मद्य मांस आदिको त्याग करते हैं तथा यज्ञोपवीत धारण करते हैं ऐसे ब्राह्मण
१-मद्योदुंबरपंचकामिषमधुत्यागाः कृपा प्राणिनां । नक्तं भुक्तिविमुक्तिराप्तविनुतिस्तोयं सुवस्त्रनुतं ॥ एतेष्टौ प्रगुणा गुणा गणधरैरागारिणां कीर्तिता । एकेनाप्यमुना विना यदि भवेद्भूतो न गेहाश्रमी ॥ अर्थ-मद्यका त्याग, पांचों उदंबरफलोंका त्याग, मांसकां त्याग, मधुका त्याग, रात्रिभोजनका त्याग तथा प्राणियोंपर दया करना, तीनों समय देवबंदना करना और पानी छानकर काममें लाना ये आठ मुख्य गुण अर्थात् मूलगुण गृहस्थोंके लिये गणधरदेवने कहे हैं। इनमेंसे यदि एक भी गुण कम हो तो उसे गृहस्थ नहीं कह सकते ।