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सागारधर्मामृत
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आगे-मांसके खाने या छूनेसे अनंत जीवोंकी हिंसा होती है इंद्रियोंका दर्प बढता है इसलिये उसके सेवन करनेसे भावहिंसा अवश्य होती है यही दिखलातेहुये उसके खानेवाले नरक आदि दुर्गतियोंमें परिभ्रमण करते हैं इसका उपदेश देते हैं
प्राणिहिंसार्पितं दर्पमर्पयत्तरसं तरां। रसयित्वा नृशंसः स्वं विवर्तयति संसृतौ ॥ ८ ॥
अर्थ---जो मांस प्राणियोंकी हिंसा करनेसे उत्पन्न होता है अर्थात् जो पंचेंद्रिय जीवोंके मारनेसे अथवा उनकी द्रव्यहिंसा करनेसे उत्पन्न होता है और जो मदका अत्यंत आवेश ( जोश ) उत्पन्न करता है अर्थात् जिसके खानेसे इंद्रियोंका मद खूब बढता है खूब भावहिंसा होती है ऐसा जो मांस है उसे जो खाता है वह क्रूर कर्म करनेवाला हिंसक अ. पने आत्माको द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव इन पंच परावर्तनरूप दुःखमय संसारमें अनंतकालतक परिभ्रमण कराता है। अभिप्राय यह है कि मांस खानेसे द्रव्यहिंसा तथा भावहिंसा होती है और वह खानेवाला अनंत दुर्गतियों में भ्रमण करता हुआ दुःख भोगता है ॥ ८॥
१. न विना प्राणविधातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मांसं भजतस्तस्मात्प्रसरत्यनिवारिता हिंसा ॥ अर्थ-प्राणोंका घात किये विना मांसकी उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती इसलिये मांसभक्षी पुरुषके अनिवार्य हिंसा लगती है । भावार्थ-मांस शरीरका एक भाग है जो शरीरको छोडकर दूसरी जगह नहीं पाया जाता । जब शरीरका घात किया जायगा तब ही मांसकी उत्पत्ति होगी। इसलिये बिना जीवघातके मांस कभी नहीं मिल सकता ।