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दूसरा अध्याय ये और इन सबको छानकर पीना चाहिये, तथा विना छनेका त्याग करना चाहिये ॥ १४ ॥
___ आगे-भोले लोगोंकी रुचि बढानकोलये रात्रिभोजनके त्यागका उत्तमफल दृष्टांतद्वारा दिखलाते हैं
चित्रकूटेऽत्र मातंगी यामानस्तमितव्रतात् । स्वभा मारिता जाता नागश्रीः सागरांगजा ॥१५।।
अर्थ--यहां ही अर्थात् मालवा देशके उत्तरदिशामें प्रसिद्ध चित्रकूटपर्वतपर रहनेवाली एक चांडालिनीको जागरिक नामके उसके पतिने मार डाला था परंतु उस चांडालीनीने एक
यद्येवं तर्हि दिवा कर्तव्यो भोजनस्य परिहारः । भोक्तव्यं तु निशायां नेत्थं नित्यं भवति हिंसा ॥ नैवं वासरमुक्ते भवति हि रागाधिको रजनिभुक्तौ । अन्नकवलस्य भुक्तेः भुक्ताविव मांसकवलस्य ॥ भावार्थ-यदि सदाकाल भोजन करनेसे ही हिंसा होती है तो दिनके भोजनका त्याग करके रात्रिको ही भोजन करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करनेसे सदा हिंसा नहीं होगी ? सो ऐसा नहीं है क्योंकि जैसे अन्नके भोजनसे मांसके भोजनमें अधिक राग होता है उसीतरह दिनके भोजनसे रात्रिके भोजनमें अधिक राग होता है ।
२-अर्कालोकेन विना भुंजानः परिहरेत्कथं हिंसां । अपि बोधिते प्रदीपे भोज्यजुषां सूक्ष्मजीवानां ॥ अर्थ-सूर्य के प्रकाशके विना अर्थात् रात्रिमें भोजन करनेवाले पुरुषोंके जलाये हुये दीपकमें भी भोजनमें मिले हुये सूक्ष्म जंतुओंकी हिंसा किसप्रकार दूर की जा सकती है ।