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दूसरा अध्याय
भरे रहते हैं। और जो जीव इन्हीं फलोंको सुकाकर खाता है अथवा बहुत दिन पड़े रहनेसे जिनके सब त्रस जीव मर गये हैं ऐसे फलोंको खाता है वह भी उन फलों में अधिक राग रखनेसे उनमें अधिक प्रेम रखनेसे अपने आत्माका घात करता है। अभिप्राय यह है कि इन फलोंको हरे खानेसे द्रव्यहिंसा भावहिंसा दोनों ही होती हैं
और 'सूके खानेसे मुख्यतया भावहिंसा होती है और गौणतासे 'द्रव्यहिंसा होती है इसलिये हरे सूके दोनों तरह के उदुंबरोंका त्याग करना चाहिये । वह श्लोक अंतर्दीपक अर्थात् बीच में रक्खे हुये दीपकके समान है। बीचमें रक्खा हुआ दीपक जैसे पीछे रक्खे हुये पदार्थों को भी प्रकाश करता है उसीतरह यह श्लोक भी सूके मद्य मांस मधुके खाने का भी निषेध करता है। भावार्थ-जैसे उदुंबर आदि फल हरे और सूके दोनों छोडनेयोग्य हैं उसीतरह मद्य मांस मधु भी रस सहित और सूके
१-यानि तु पुनर्भवेयुः कालोच्छिन्नत्रसाणि शुष्काणि । भजतस्तान्यपि हिंसा विशिष्टरागादिरूपा स्यात् ॥ अर्थ-समय पाकर जिनके त्रस जीव मर गये हैं ऐसे सूके उदंबर आदि फलोंके खानेसे भी विशेष रागरूपी भावहिंसा होती है।
२-यद्यपि सूके गूलर आदि फलोंमें त्रस जीव मर जायंगे तथापि उनका मांस उसीमें रहेगा इसलिये सूके उदंबर खानेसे मांस खानेका दोष भी अवश्य लगेगा।