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दूसरा अध्याय
धर्मात्मा पुरुषोंको शहतके समान मक्खन वा लौनीका भी १ त्याग कर देना चाहिये । अभिप्राय यह है कि मक्खन वा लौनीमें दो मुहूर्त के बाद जीव उत्पन्न होते हैं और फिर निरंतर उत्पन्न होते तथा मरते रहते हैं। इसलिये वह त्याज्य है॥१२॥ ___यश्चिरवादिषति सारधं कुधी मैक्षिकागणविनाशनस्पृहः । पापकर्दमनिषेधनिम्नगा तस्य हंत करुणा कुतस्तनी ॥ अर्थ-जिस दुर्बुद्धिके शहत खानेकी इच्छा होती है उसके मधुमक्खियोंके नाश करनेकी ही इच्छा होती है । ऐसे मनुष्यके पापरूपी कीचडको धो देनेवाली नदीके समान करुणा कहां रह सकती है ? अर्थात् दुःखके साथ कहना पडता है कि उसके करुणा कभी नहीं रह सकती । अथवा
स्वयमेव विगलितं यो गृह्णीयाद्वा छलेन मधुगोलात्। तत्रापि भवाति हिंसा तदाश्रय प्राणिनां घातात् ॥ अर्थ-जो शहतके छत्तेसे कपटसे अथवा मक्खियों द्वारा स्वयमेव उगला हुआ शहत ग्रहण किया जाता है वहां भी उसके आश्रय रहनेवाले अनेक प्राणियोंके घातसे हिंसा अवश्य होती है।
१-यन्मुहूर्तयुगतः परं सदा मूर्च्छति प्रचुरजीवराशिभिः । तद्लिंति नवनीतमत्र ये ते व्रजति खलु कां गति मृताः ॥
'अर्थ-दो मुहूर्त अर्थात् चार घडीके पीछे जिसमें अनेक सम्मूछन जीव भर जाते मैं तथा निरंतर उत्पन्न होते रहते हैं ऐसे मक्खनको जो लोग खाते हैं वे मरनेके पीछे किस दुर्गतिमें जायंगे ? यह कह नहीं सकते।
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