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सागारधर्मामृत
[७३ गांव जलानेके पापसे भी अधिक पाप लगता है । जब उसकी एक बूंद खाने में इतना पाप है तब उसको अधिक खाने या अन्य किसी काममें लानेसे महा पाप होगा ही इसमें कोई संदेह नहीं है।
आगे-शहतके समान नवनीत अर्थात् मक्खन अथवा लौनीमें बहुत दोष है इसलिये उसके भी त्याग करनेका उपदेश देते हैं--
मधुवन्नवनीतं च मुंचेत्तत्रापि भूरिशः ।
द्विमुहूर्तात्परं शश्वत्संसजत्यंगिराशयः ॥१२॥ __ अर्थ-जिसप्रकार शहतमें सदा अनंत जीव उत्पन्न होते रहते हैं उसीप्रकार मक्खन वा लौनीमें भी दो मुहूर्त के बाद निरंतर अनेक सम्मूर्छन जीव उत्पन्न होते रहते हैं इसलिये
१-ग्रामसप्तकविदाहिरेफसा तुल्यता न मधुभक्षिरेफसः। तुल्यमंजलिजलेन कुत्रचिन्निम्नगापतिजलं न जायते ॥ अर्थ-सात गांवोंके जलानेसे जो पाप हुआ है वह कुछ शहत खानेसे उत्पन्न हुये पापकी समानता नहीं कर सकता क्योंकि हाथकी हथेलीपर रक्खाहुआ पानी क्या समुद्रके पानी की बराबरी कर सकता है ? अर्थात् कभी नहीं । अभिप्राय यह है कि सात गांवोंके जलानेके पापसे भी शहत खानेमें आधिक पाप लगता है इसलिये उसके खानेकी इच्छा कभी नहीं करना चाहिये।