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दूसरा अध्याय
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चाहे कच्चा हो, चाहे अग्निमें पकाया हुआ हो, अथवा पक रहा हो उसमें अनंत साधारण निगोद जीवोंका समूह सदा उत्पन्न होता रहता है उसकी कोई अवस्था ऐसी नहीं है जिसमें जीवोंका समूह उत्पन्न न होता हो । अभिप्राय यह है कि मांस कैसा ही हो चाहे कच्चा हो चाहे पकाहुआ हो और चाहे पक रहा हो हरसमय उसमें अनंत जीव उत्पन्न होतेरहते हैं । मांस खाने अथवा स्पर्श करने में ऊपर द्रव्यहिंसा दिखलाई है, भावहिंसा आगेके श्लोकमें दिखलायंगे । इसतरह वह दोनोंतरहकी हिंसा करनेवाला होता है । इस श्लोकमें स्वयं प्रतस्यापि' यहां पर जो अपि शब्द है जिसका अर्थ अपने आप ‘मरे हुयेका भी'। होता है उसका यह अभिप्राय है कि जब अपने प्रयत्न के विना ही स्वयं मरे हुये जीवका मांस स्पर्श करने अथवा खानेसे हिंसक होता है तो प्रयत्नपूर्वक मारे हूये जीवके मांसभक्षण करनेवालेका क्या कहना है वह तो महाहिंसक है ही ॥७॥
१ आमां वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीं । स निहंति सततनिचितं पिंडं बहुजीवकोटीनां ॥ अर्थ-जो जीव कच्ची अथवा आग्निमें पकी हुई मांसकी डलीको खाता है अथवा छूता है वह पुरुष निरंतर इकठे हुये अनेक जीवोंके समूहके पिंडको नष्ट करता है अर्थात् उनका घात करता है।
आमास्वपि पक्कास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तजातीनां निगोतानां ॥ अर्थ-विना पकी, पकी हुई, तथा पकती हुई भी मांसकी डलियोंमें उसी जातिके साधारण जीव निरंतर ही उत्पन्न होते रहते हैं।