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सागारधर्मामृत
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बडा भारी नीच कृत्य है । पंडितवर ऐसे पुरुषोंके लिये बडा भारी धिक्कार देते हैं और अपि शब्दसे आश्चर्य प्रगट करते हैं । ग्रंथकारने इस कृत्यको नीच दिखलाने के लिये और उन्हें धिक्कार देनेकेलिये ही गर्दा अर्थ में सप्तमी विभक्ति दी है ॥ ६ ॥
आगे-अपने आप मरेहुये मछली आदि पंचेंद्रिय जीवोंके मांस खाने में कोई दोष नहीं है ऐसा माननेवालोंके लिये कहते हैं-
हिंस्रः स्वयं तस्यापि स्यादश्नन् वा स्पृशन्पलं । पक्कापका हि तत्पेश्यो निगोदौघसुतः सदा ॥७॥ अर्थ - जो जीव मांस खानेवालेके बिना किसी प्रयत्नसे अपने आप मरे हुये मछली भैंसा आदि प्राणियोंका मांस खाता है अथवा केवल उसका स्पर्श करता है वह भी द्रव्यहिंसा करनेवाला हिंसक अवश्य होता है । क्योंकि मांसका टुकडा
भक्षयंति पलमस्तचेतनाः सप्तधातुमयदेहसंभवं । यद्वदंति च शुचित्वमात्मनः किं विडंबनमतः परं बुधाः ॥ अर्थ - सातप्रकारकी धातुओंसे भरे हुये शरीरसे उत्पन्न हुये मांसको अज्ञानी लोग भक्षण करते हैं सो तो किसीतरह ठीक भी हो सकता है परंतु "हम पवित्र है" ऐसा अभिमान करनेवाले कितने ही पंडितजन मांस भक्षण करते हैं उनको क्या कहें उनकी विडंबना इससे अधिक और क्या होगी १ । यतो मांसाशिषः पुंसो दमो दानं दयार्द्रता । सत्यशौचमताचारा न स्युर्विद्यादयोऽपि च ॥ अर्थ- मांस खानेवाले जीवोंके इंद्रियदमन, दान, दया, सत्य, पवित्रता, व्रत, आचार, विद्या, हिताहितका विचार आदि समस्त सद्गुण नष्ट हो जाते हैं ।