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सागारधर्मामृत [६३ तथा जिसके न पीनेका व्रत ग्रहण करनेसे जिसप्रकार धूर्तिल नामके चोरको कीसीतरह की विपत्ति नहीं हुई थी उसीप्रकार जिस कुलमें मद्य नहीं पिया जाता ऐसे कुलमें उत्पन्न होकर भी जो देव गुरु पंच आदिकी साक्षीपूर्वक मद्य न पीनेका व्रत ग्रहण करता है, अनेक तरहके दोषोंसे भरेहुये मद्यके छोडनेका पक्का नियम कर लेता है उसको किसीतरहका दुःख नहीं होता,
और जिसके पीनेसे जिसप्रकार एकपाद नामके सन्यासीने ( मिथ्यातपस्वी ) अविवेकी होकर चांडालिनीके साथ सहवास किया था, मांस खाया था और न पीने योग्य चीजें पीयीं थीं तथा ऐसे दुराचरण करता हुआ वह अंतमें नरक आदि दुर्गतियोंमें गया था, उसीप्रकार जिस मद्यके पीनेवाले अनेक दुराचरण करतेहुये नरक आदि दुर्गतियोंमें डूबते हैं, उसप्रकारके मद्यको अवश्य छोड देना चाहिये । अभिप्राय यह है कि मद्य पीनेसे उसमें उत्पन्न होनेवाले अनेक जीवोंका घात होता है इससे द्रव्यहिंसा होती है और उसके पीनेवालोंके परिणाम क्रोध काम आदि रूप होते हैं इसलिये 'भावहिंसा भी होती है। अतएव मद्य पीनेसे दोनों तरहकी हिंसा होती है हास्य, अरति, शोक, काम, क्रोध आदि सब हिंसाकी पर्याय हैं अर्थात् वे सब एक तरहकी हिंसा हैं और वे सब मद्यके समीप रहते हैं। भावार्थ-मद्य पीनेसे अभिमान आदि भाव उत्पन्न होते हैं और वे सब हिंसाके ही भेद हैं इसलिये मद्य (शराब) पीनेसे भावहिंसा अवश्य होती है।