________________
७०]
दूसरा अध्याय अंग है । इसतरह यद्यपि दोनों समान हैं तथापि मांस लोह आदिके विकारसे उत्पन्न होता है अतः उसमें दोष है इसलिये अहिंसा धर्मके पालन करनेवालोंको मांस भक्षण नहीं करना चाहिये । तथा गेंहू जो उडद आदि धान्य यद्यपि एकेंद्रिय जीवोंके अंग हैं तथापि वे लोहू आदिके विकारसे उत्पन्न नहीं होते इसलिये उसके खाने में दोष नहीं है वह भक्ष्य है । अन्नमें प्राणीका अंग होनेसे मांस कल्पना नहीं हो सकती क्योंकि जो जो प्राणीका अंग होता है वह सब मांस होता है ऐसा नियम नहीं है। यदि
शुद्धं दुग्धं न गोर्मासं वस्तुवैचित्र्यमीदृशं । विषघ्नं रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः ॥ अर्थ-एक ही जगह उत्पन्न होनेवाली दो वस्तुओंमें कितना अंतर होता है ? देखो! गायका दूध शुद्ध है परंतु उसका मांस शुद्ध नहीं है । जैसे रत्न और विष दोनों ही सर्पमें उत्पन्न होते हैं परंतु तो भी उन दोनोंमें बडा अंतर है । रत्न विषका नाश करनेवाला है और विष प्राणोंका नाश करनेवाला है। यह केवल वस्तुके' स्वभाव की ही विचित्रता है । अथवा
हेयं पलं पयः पेयं समे सत्यपि कारणे । विषद्रोरायुषे पत्रं मूलं तु मृतये मतं ॥ अर्थ-गायके दूध और मांसके उत्पन्न होनेका घास पानी आदि एक ही कारण है तथापि मांस छोडने योग्य है और दूध पीने योग्य है । जैसे एक ही जल मिट्टीसे उत्पन्न होनेवाले विषवृक्षके पत्ते आयु बढानेवाले हैं और उसको जड आयुको नाश करनेवाली है।
।