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सागारधर्मामृत
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पाक्षिकादि भिदा त्रेधा श्रावकस्तत्र पाक्षिकः । तद्धर्मगृह्यस्तनिष्ठो नैष्ठिकः साधकः स्वयुक् ॥ २० ॥
अर्थ-- जो पक्षमें कहे हुये आचरणोंको पालन करे अथवा उन आचरणोंसे सुशोभित हो उसे पाक्षिक कहते हैं । पाक्षिक नैष्ठिक और साधक इन तीनोंके भेदोंसे श्रावकके तीन भेद होते हैं। उनमेंसे जिसके एकदेश हिंसाके त्याग करनेरूप श्रावकके धर्म वा व्रतके ग्रहण करनेका पक्ष है, अर्थात् जिसने श्रावकके व्रत धारण करनेकी प्रतिज्ञा की है, अथवा जिसने देशसंयम प्रारंभ किया है, अथवा श्रावकका धर्म स्वीकार किया है उसे पाक्षिक कहते हैं । तथा जो पूर्ण रीतिसे श्रावकके व्रतोंका निर्वाह करता है, जिसे देशसंयमका खूब अभ्यास हो गया है, जो अतिचाररहित श्रावकधर्मका पालन करता है और जो श्रावककी सब व्रतक्रियाओंका पालन करता है उसे नैष्ठिक कहते हैं । इसीतरह जो समाधिमरण धारण करता है, जिसकी समाधि आत्मामें लगी हुई है, जिसका देशसंयम पूर्ण होगया है और जो अपने आत्माके ध्यान करनेमें तल्लीन है उसे साधक कहते हैं ॥२०॥ इसप्रकार पंडितप्रवर आशाधरविरचित सागारधर्मामृतका उन्हींकी भव्यकुमुदचंद्रिका संस्कृतटीकाके अनुसार किये हुये भाषानुवादमें सागारधर्मकी सूचना करनेवाला
'पहिला अध्याय समाप्त हुआ॥१॥ | यही अध्याय धर्मामृतका दशवां अध्याय है ।