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1 सप्रकार पहिले अध्यायमें केवल सागारधर्मको सूचित किया । अब आगे इस दूसरे अध्यायमें पाक्षिकश्रावकके *आचार विस्तारसे कहेंगे । उसमें भी पहिलेके आचार्योंने कैसे भव्यपुरुषको सागारधर्म स्वीकार करनेकी आज्ञा दी है उसीका स्वरूप कहते हैं
त्याज्यानजस्रं विषयान् पश्यतोऽपि जिनाज्ञया। मोहात्त्यक्तुमशक्तस्य गृहिधर्मोऽनुमन्यते ॥१॥
अर्थ-जो भव्य जीव वीतराग सर्वज्ञदेवके अनुल्लंघ्य शासनके द्वारा अर्थात् सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होजानेसे स्त्री भोजन वस्त्र आदि विषयोंको निरंतर सेवन करनेके अयोग्य मानता है । अपि शब्दसे यह अभिप्राय निकलता है कि जैसे यह जीव अनंतानुबंधी कषायके वश होकर विषयोंका सेवन करनेयोग्य समझता है इसप्रकार वह उन विषयोंको सेवन करनेयोग्य नहीं समझता, उन्हें सदा छोडनेयोग्य ही समझता है तथापि प्रत्याख्यानावरण नामके चारित्रमोहनीयकर्मके तीव्र उ. दयसे उन विषयोंको छोड नहीं सकता, ऐसे पुरुषों के लिये धर्माचार्य गृहस्थधर्म पालन करनेकी आज्ञा देते हैं । अभिप्राय यह है कि जो गृहस्थ हिंसा आदि पापोंको पूर्ण रीतिसे नहीं।