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सागारधर्मामृत
[५५ छोड सकता । जब एकदेश उनके त्याग करनेकी प्रतिज्ञा करता है तब आचार्य उसे स्वीकार करते हैं।
यहांपर कोई यह प्रश्न कर सकता है कि यद्यपि गृहस्थधर्ममें त्रस जीवोंका घात नहीं होता तथापि स्थावर जीवोंका घात होता है । ऐसी अवस्थामें आचार्यने जो गृहस्थधर्मके स्वीकार करनेके लिये संमति दी है वह योग्य न होगी, क्योंकि उस सम्मतिमें स्थावर जीवोंके घात करनेकी अनुमतिका दोष आचार्यको लगेगा, परंतु इसका समाधान उपर लिखे वाक्योंसे ही हो जाता है और वह इसप्रकार है कि जिससमय सबतरह हिंसा करनेवाला जीव सम्यग्दृष्टी होकर श्रावकधर्मको स्वीकार करता है तब वह अपनी 'असमर्थताके कारण समस्त विषयोंका त्याग नहीं कर सकता, केवल अपने योग्य विषयोंके सेवन करनेमें लगा रहता है उससमय 'पहि
१. विषयविषप्राशनोत्थितमोहज्वरजानततीव्रतृष्णस्य । निःशक्तिकस्य भवतः प्रायः पेयाद्युपक्रमः श्रेयान् ॥ अर्थ-विषयरूपी विषम अन्नके सेवन करनेसे जो मोहज्वर उत्पन्न हुआ है उस मोहज्वरके संबंधसे जिसको तीव्र तृष्णा अर्थात् विषयसेवन करनेकी लालसा लगी हुई है और जो अत्यंत अशक्त होगया है ऐसे जीवको पेय पदार्थोंका देना ही कल्याणकारी होगा, अर्थात् जैसे ज्वरसे अशक्त
और तृष्णातुर मनुष्यको पहिले पीनेयोग्य पदार्थ और फिर खानेके पदार्थ दिये जाते हैं इसीप्रकार मोहाभिभूत पुरुषको पहिले योग्य विषयोंका सेवन करना और फिर क्रमसे छोडना ही कल्याणकारी होगा।