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प्रथम अध्याय
हुये किसी वारिस के लिये जिसे वह स्वयं पालन पोषण करता था ऐसे कुटुंबको तथा धन और धर्मको जो सौंप देता है और फिर जो अपना घर छोडना चाहता है या छोडनेका अभ्यास करता है ऐसे श्रावक के जो पहिली दर्शनप्रतिमासे लेकर दशवीं अनुमतित्याग प्रतिमातक व्रत नियम आदि आचरण हैं उसे चर्या कहते हैं ।
तथा जो घरके त्याग करनेका अंतिम समय है जिससमय प्राण छूटनेका समय समीप आगया है उस अंतके समय में किसी नियत ' समयतक अथवा जीवनपर्यंत जैसा उससमय उचित हो उसी तरह आहार, शरीरकी सब चेष्टायें और शरीर इनके छोड़ देनेसे जो विशुद्ध ध्यान उत्पन्न होता है उस ध्यान से जो चैतन्यस्वरूप आत्माको शुद्ध करना है अर्थात् राग द्वेष सब छोड देना है उसे साधन कहते हैं । साधनमें भी प्रायचित्त आदिके द्वारा खेती व्यापार आदिके दोष दूर करना चाहिये यह श्लोक में दिये हुये तु शब्दसे सूचित होता है ।
अभिप्राय यह है कि मूलगुण तथा अणुव्रत आदि व्रत पालन करना पक्ष है । विरक्त होकर तथा घर कुटंबका सब भार पुत्रको देकर पहिली प्रतिमासे दशवीं प्रतिमातक के व्रत पालन करना चर्या है और समाधिमरण धारण करना साधन है ||१९||
आगे - पक्ष चर्या साधन इनके द्वारा श्रावकके जो तीन भेद होते हैं उन्हींको संक्षपसे कहते हैं
१ जहां जीने मरनेका संदेह हो वहां किसी नियत समयतक आहारादिका त्याग किया जाता है ।