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OMMEENIगमामा-उपधारमा
सागारधर्मामृत
[४७ पात्रदत्ति, समानदत्ति, अन्वयदत्ति, और दयादत्ति ये चार दान, तप संयम और स्वाध्याय ये शंच क्रियायें श्रावकोंके करनेके लिये जैन शास्त्रोंमें प्रसिद्ध हैं । इन्हें करनेके लिये ही श्रावक खेती, व्यापार, सेवा, शिल्प, मषि और विद्या ये आजीविकाके छह कर्म आरंभ करता है । इन छह कर्मों में उसे पाप भी अवश्य लगता है । इसलिये पूजा, दान, तप, संयम और स्वाध्याय इन क्रियाओंको पूर्ण रीतिसे करनेके लिये खेती व्यापार आदि आजीविका करनेवाले गृहस्थों को अरहंतदेवकी आज्ञानुसार अथवा गुरूके उपदेशानुसार किसी प्रायश्चितसे अथवा पक्ष जिनमंदिरमें अपने घरसे गंध अक्षत पुष्प आदि पूजनकी सामग्री ले जाकर भक्तिपूर्वक जिनेंद्रदेव और जिनालयकी पूजा करनेको नित्यमह कहते हैं । तथा नवीन जिनमंदिर, जिनप्रतिमा बनवाना, मंदिरोंका जीर्णोद्धार करना और नित्यपूजा सदा होनेके लिये गांव खेत आदिका दान देना भी नित्यमह है।
या च पूजा मुनींद्राणां नित्यदानानुषङ्गिनी। स च नित्यमहो शेयो यथा शक्त्युपकल्पितः ॥ अपनी शक्तिके अनुसार मुनीश्वरोंकी पूजा करके जो उनको नित्य आहारदान देता है उसे भी नित्यमह कहते हैं।
महामुकुटबद्धैस्तु क्रियमाणो महामहः । चतुर्मुखः स विज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि ॥ महामुकुटवद्ध राजाओंके द्वारा जो महामह अर्थात् महा यज्ञ ( महापूजा ) किया जाता है उसे चतुर्मुखयज्ञ कहते हैं इसका दूसरा नाम सर्वतोभद्र भी हैं।